सोमवार, 7 मार्च 2011

यह साली ज़िन्दगी - फिल्म समीक्षा


यह साली ज़िन्दगी
 सुधीर मिश्र हिन्दी सिनेमा के जाने-माने हस्ताक्षर हैं। 1996 की रोमांचक फिल्म "इस रात की सुबह नहीं" से मशहूर हुए सुधीर मिश्र 1983 की चर्चित फिल्म "जाने भी दो यारों" की कथा और पटकथा के सहलेखक थे, इस बात की जानकारी कम ही लोगों को है। 

 मैं भी "जाने भी दो..." से लेकर "हज़ारों ख्वाहिशें..." तक सुधीर मिश्र का फैन रहा हूँ। लेकिन अब लगता है कि वे अपने ही फॉर्मूले दोहराने के फेर में पड गये हैं। कई पात्रों से अभिनय भी नहीं करा सके थे। फिल्म जगह-जगह पर नकली लगी।

"यह साली ज़िन्दगी" के नाम पर आपत्ति किये जाने पर सुधीर का कहना था कि "साली" कोई गाली नहीं है। फिल्म देखने वालों को पता लग गया होगा कि वाहियात गालियों के मलबे में दबी हुई फिल्म के निर्देशक को "साली" में गाली कैसे नज़र आयेगी। "इस रात की सुबह नहीं" का पुलिस अधिकारी इस फिल्म में भी अपराधियों से मिलकर हत्या सरीखे अपराध बडी तसल्ली से अंज़ाम देता है। "हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी" के नायक की तरह इस फिल्म का नायक भी अपनी मॉडर्न नायिका के लिये अपना स्थापित जीवन दांव पर लगाकर मौत से आंखमिचौनी खेलता हुआ अंततः उसे पाने में कामयाब होता है। कसे निर्देशन के बावज़ूद कहानी का समय में आगे-पीछे डोलते रहना कई बार ऐसी भावना देता है मानो कोई शरारती बच्चा एक बेसुरे भोंपू को बार-बार आपके कान के आगे पीछे कर रहा हो। मंत्री बने अभिनेता से न तो अभिनय हुआ और न ही सम्वाद बोले गये। न जाने सुधीर मिश्र की हर फिल्म में एक ऐसा पात्र क्यों होता है। फिल्म में शुरू से आखिर तक की अधिकांश सिचुएशंस (घटनायें?) भी पूर्णतः अविश्वसनीय हैं और दूर की कौडी लगती हैं।

कुल मिलाकर समय और पैसे की बर्बादी और एक अच्छे निर्देशक से मोहभंग कराने वाली फिल्म।