मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

अनुरनन - काव्य सरीखी फिल्म

राइमा सेन - अनुरनन में 
बंगला भाषा में अनुरनन का निकटतम अर्थ होगा अनुनाद या सुर-संगति। यदि शाब्दिक अर्थ से ऊपर उठकर देखें तो "मनभावन" शब्द भी बुरा न होगा। अनुरनन का आरम्भ यूरोप की हरीतिमा में किसी कोमल कविता की तरह होता है और उसका चरम होता है कंचनजंघा के अलौकिक दृश्यों के साथ। लगता ही नहीं जैसे कोई फिल्म देखी जा रही हो। यूँ महसूस होता है मानो अर्धनिद्रा में कोई स्वप्न कानों में चुपके से फुसफुसा गया हो।

मूल बांगला में बनी इस फिल्म का हिन्दी संस्करण भी उपलब्ध है, मैने वही देखा है। अनिरुद्ध राय चौधरी के निर्देशन में राइमा सेन, रितुपर्ण सेनगुप्ता, राहुल बोस, रजत कपूर जैसे कलाकारों ने प्रभावी अभिनय किया है। संगीत तन्मय बोस और आशीष रेगो का है। कलकत्ता में रहने वाला एक दम्पत्ति युगल नन्दिता (रितुपर्णो सेनगुप्ता) और राहुल चटर्जी (राहुल बोस) अपनी अजन्मी संतान को खोने के दुख और उससे उपजी समस्याओं का सामना करते हुए मुम्बई आ जाते हैं। व्यवसाय के सिलसिले में वे बर्मिंघम पहुंचते हैं।

राहुल बोस - अनुरनन से
कुछ समय बाद बाघडोगरा में प्रारम्भ होने वाले नये व्यवसाय के सिलसिले में राहुल की कम्पनी उसे भारत भेजती है। दोनों भारत आ जाते हैं जहाँ कलकत्ता में उनकी भेंट कम्पनी के भारतीय प्रतिनिधि अमित बनर्जी (रजत कपूर) और उसकी पत्नी प्रीति (राइमा सेन) से होती है। दोनों परिवारों की नज़दीकियाँ बढती हैं। जहाँ सम्वेदनशील नन्दिता और व्यवसायी अमित अपने-अपने संसार में रहते हैं, सृजनशील प्रीति और रचनात्मक राहुल अनजाने ही एक दूसरे के काफी निकट आते हैं और उनके बीच वह कोमल भावना उत्पन्न होती है जिसे फिल्म में अनुरनन का नाम दिया गया है।

भारत है, उनके अनुरनन के बारे में बातें तो उडती ही हैं। नन्दिता बच्चों की शाला में अध्यापन शुरू कर देती है। अमित काम के सिलसिले में यूरोप जा रहा होता है तब नन्दिता प्रीति को राहुल के सिक्किम जाने के बारे में बताती है। प्रीति अमित के साथ लंडन जाने की ज़िद करती है और हमेशा की तरह मना किये जाने पर कहती है कि अगले जन्म में वह उन्मुक्त पक्षी बनना चाहती है।

जाने के बाद जो देखा वह पहले क्यों नहीं दिखता?
दार्जीलिंग की पृष्ठभूमि में चल रहे आन्दोलन की छाया में बदली अपनी परियोजना के सिलसिले में अब राहुल सिक्किम में पहाड़ पर ऐसी जगह पर है जहाँ से कंचनजंघा दिखाई देती है। एक रात राहुल अपने कमरे से बाहर आकर हिमालय का अलौकिक दृश्य देखता है। परंतु वह अकेला नहीं है। उसके साथ है प्रीति जो किसी से कहे बिना कलकता से हिमालय देखने आयी है। दोनों साथ घूमते हैं, बातचीत करते हैं। गेस्ट हाउस के कर्मी उन्हें पति-पत्नी जैसे मान देते हैं। चान्दनी रात में रजतमय चोटी का अवलोकन करने से पहले प्रीति राहुल से कहती है, "ज़िन्दगी हमेशा बिट्रे करती है।" गुड नाइट कहकर राहुल अपने कमरे में कुछ कविता सी रिकॉर्ड करता है, "लोग क्यों एक दूसरे के करीब आते हैं ..."। सुबह उठकर कंचनजंघा पर सूर्योदय का दिव्य दृश्य देखकर उत्साहित प्रीति जब राहुल के कमरे में आती है तो पाती है कि रात में किसी समय उसकी आकस्मिक मृत्यु हो चुकी है। लंडन में पति की बात थाने में दुश्चरित्र समझकर बिठाई हुई पत्नी से होती है। बस यहीं से आरम्भ होती है प्रीति के चरित्र हनन, मानसिक यंत्रणा, पुलिस प्रक्रिया, और पहले पति फिर माँ के दुर्व्यवहार की एक कठिन यात्रा। साथ ही गर्म होता है दर्द और अफवाहों का ऐसा बाज़ार जिसमें न केवल दो दाम्पत्य जीवन बल्कि उनसे जुडे हुए अन्य अनेक जीवन टूट से जाते हैं।

अखबारों में खबरें छपती हैं, नन्दिता अपने घर व ससुराल से सहारा पाती है परंतु प्रीति अपने "पाप" के लिये अपनों से बार-बार दुत्कारी जाती है| बुरी नज़र वाले पडोसी उससे सम्पर्क करने के बेशर्म प्रयास भी करते हैं। आगे क्या होता है, यह विस्तार से कहने से तो शायद अनुरनन का आकर्षण कम हो जाये मगर फिर नन्दिता को राहुल के अंतिम वचन का डिजिटल रिकॉर्डर मिलता है। खोये हुए क्षण और जीवन तो कभी वापस नहीं आते परंतु मृतक पति के अंतिम शब्द उस दुर्घटना के प्रति नन्दिता की सोच को पलट देते हैं। लगभग उसी समय प्रीति आत्महत्या का प्रयास करती है।

प्रीति: "पंछी बनकर उड न पाई, सबने मेरे पंख काटकर रख दिये।"
नन्दिता: "मन के पंख से उड पगली, यह मैं कह रही हूँ तुझसे।"


शनिवार, 9 अप्रैल 2011

मौन रागम (1985) - तमिल फिल्म समीक्षा


हिन्दी फिल्में देखता रहा हूँ, परंतु बीच-बीच में अन्य भाषाओं की फिल्में देखने का अवसर भी मिला है। अंग्रेज़ी और तेलुगु के अतिरिक्त भी कई भाषाओं की फिल्में देखीं हैं। तमिळ में बनी "मौन रागम" एक ऐसी ही फिल्म है। अधिकांश तमिल फिल्मों की तरह नाटकीयता और भावनात्मकता का खूबसूरत संतुलन।

आज तो मणिरत्नम को भारतीय फिल्म जगत अच्छी तरह पहचानता है। 1985 में बनी "मौन रागम" उनकी पहली फिल्म थी। फिल्म का पार्श्व संगीत व गीत-संगीत मेरे प्रिय संगीतकार इल्याराजा का है। संगीत इस फिल्म का एक सशक्त पक्ष है। ऐस. जानकी और ऐस. पी बालासुब्रामण्यम के स्वर अभिनेताओं और संगीत के अनुकूल हैं। "चिन्न चिन्ना" और "निलावे वा" जैसे गीतों से दर्शक सहज ही जुड जाता है। सन 2007 की हिन्दी फिल्म "चीनी कम" के गीत इस फिल्म के संगीत से प्रेरित बताये जाते हैं।

विषय भले ही नया न हो परंतु इस फिल्म की कहानी, निर्देशन, नृत्य फोटोग्राफी आदि सभी अंग सुन्दर हैं। रेवती, मोहन और कार्तिक  मुथुरामन इस फिल्म के मुख्य कलाकार हैं। सहज अभिनय ने इस फिल्म में चार चान्द लगा दिये हैं।
    
कठिन परिस्थितियों में दिव्या को अपनी अच्छा के विरुद्ध चन्द्रकुमार से विवाह करना पडता है। शादी के बाद भी वह न तो अपने मृत प्रेमी को भूल पाती है और न ही वर्तमान सम्बन्ध के प्रति अपनी अनिच्छा दिखाने का कोई अवसर ही छोडती है। मृदुभाषी पति उसके अतीत को भुलाकर वर्तमान को हर सम्भव सुखद बनाता है और इसी प्रयास में एक दिन यह पूछ बैठता है कि वह अपनी पत्नी को ऐसा क्या उपहार दे जिससे वह संतुष्ट हो सकेगी।

"तलाक़", दिव्या कहती है और चन्द्रकुमार अपना कलेज़ा सीकर न केवल उसकी इच्छापूर्ति की प्रक्रिया में लग जाता है बल्कि अब वह आसन्न जुदाई के लिये अपने को तैयार करते हुए स्वयम् भी इस सम्बन्ध से बाहर आने के प्रयास आरम्भ कर देता है। सहमति से तलाक़ की अर्ज़ी दाखिल होती है परंतु नियमों के अनुसार दोनों को एक वर्ष तक साथ रहकर अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने को कहा जाता है।

जैसा कि आप अन्दाज़ लगा सकते हैं कि इस बीच धीरे-धीरे दिव्या अपने पति के शांत व्यवहार के पीछे छिपे व्यक्ति को समझने लगती है परंतु अब समीकरण उल्टे चलने लगते हैं जहाँ पति अपने जीवन से दिव्या की आगत अनुपस्थिति के बाद की तैयारी में लगा है। एक दिन अपने काम पर हुई किसी झडप में जब चन्द्रकुमार घायल हो जाता है, दिव्या अपना कर्तव्य निभाती हुई पहली बार पति की सेवा में लग जाती है।

दिव्या को याद भी नहीं रहता कि साल पूरा होने को है और तलाक़ के निर्णय की तारीख निकट आती जा रही है। दोनों ही अपने दिल की बात अपने तक ही रखते हैं। लेकिन दिव्या इसी बीच अपने प्रेम की मूक अभिव्यक्ति के लिये लिये कुछ ऐसा कर बैठती है जिससे खफा होकर चन्द्रकुमार उसका रेल का टिकट मंगाकर उसे अपने मायके जाने को कहता है। दुखी मन से जब वह स्टेशन पहुंचती है तो चन्द्रकुमार को वहाँ मौजूद पाती है। प्रसन्न्मना पत्नी निकट आती है तो चन्द्रकुमार उसे वादा किया गया उपहार देता है - तलाक़ की स्वीकृति के पत्र। दिव्या अपने हृदय की बात कहकर उन कागज़ों को फाडकर अपनी ट्रेन में चली जाती है।

देखिये इस फिल्म का अंतिम दृश्य यूट्यूब के सौजन्य से। नहीं, "मौन रागम" के लिये आपको तमिळ भाषा जानने की आवश्यकता नहीं है, हाँ आती हो तो बेहतर है।


Mauna Ragam climax scene video clip courtesy: Youtube and original uploader